जयपुर के जेके लोन अस्पताल के ब्लड बैंक का लैब टेक्नीशियन किशन सहाय कटारिया पिछले 7 महीने से बेखौफ होकर करोड़ों रुपए का प्लाज्मा चुराकर बेच रहा था। चौंकाने वाली बात यह है कि 25 लोगों के स्टाफ की मौजूदगी, गार्ड, सीसीटीवी कैमरे लगे होने के बावजूद वह चोरी को अंजाम देता रहा। किसी को उसकी करतूत की भनक तक नहीं लगी।
उसकी कार से 76 यूनिट प्लाज्मा पकड़ा गया जिसकी कीमत 3 लाख रुपए से ज्यादा है। सोचिए 7 महीने में उसने कितने बड़े चोरी कांड को अंजाम दिया होगा?
भास्कर ने इस पूरे मामले की पड़ताल की तो इस प्लाज्मा चोरी कांड के पीछे चार जिम्मेदारों की गंभीर लापरवाही सामने आई।
शनिवार, 4 मई को जेकेलोन अस्पताल में ब्लड बैंक के कर्मचारियों ने किशन सहाय कटारिया नाम के लैब टेक्नीशियन को लैब से काले रंग के पॉलिथीन में कुछ सामान ले जाते देखा। शक होने पर लैब में मौजूद कर्मचारियों ने स्टोर में जाकर प्लाज्मा के स्टॉक की गिनती की तो उसमें कुछ यूनिट्स कम पाई गई। इस पर ब्लड बैंक के कर्मचारियों ने डॉ. सतेंद्र को सूचना दी। डॉ. सतेंद्र ने किशन से पूछताछ की तो उसने ब्लड बैंक के स्टोर से प्लाज्मा चोरी करने की बात कबूल कर ली।
जब जांच की गई तो पता चला कि किशन सहाय की कार में 76 यूनिट प्लाज्मा रखा था। इसकी कीमत करीब 3 लाख रुपए बताई जा रही है। चोरी पकड़े जाने के बाद भी डॉ. सतेंद्र ने इसकी जानकारी जेकेलोन अधीक्षक डॉ. कैलाश मीना को नहीं दी और पूरे मामले को 24 घंटों तक दबाए रखा। कुछ कर्मचारियों ने किशन सहाय को कार में प्लाज्मा का वीडियो बना लिया था। अगले दिन 5 मई को जब वीडियो सामने आया तब जाकर अस्पताल अधीक्षक को इसकी जानकारी लगी। यह भी सामने आया कि प्लाज्मा कई महीनों से चोरी हो रहा था।
ब्लड बैंक में लैब टेक्नीशियन सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। किशन सहाय जेके लोन ब्लड बैंक में वर्ष 2021 से सीनियर टीटीआई (ट्रांसफ्यूजन ट्रांसमिटेड इन्फेक्शन एक्सपर्ट) के तौर पर कार्यरत था। जयपुर और जयपुर के बाहर आयोजित होने वाले ब्लड डोनेशन कैंप में भी उसे भेजा जाता था। यानी किशन को इसकी जानकारी रहती थी कि कैंप में कितनी यूनिट कलेक्शन हुआ है। उसमें से आरबीसी, डब्ल्यूबीसी, प्लेट्लेट्स और फिर प्लाज्मा निकालने के बाद किसका कितना स्टॉक बैंक के पास है।
किशन यह भी जानता था कि अस्पताल में काफी मात्रा में प्लाज्मा मौजूद है और कुछ यूनिट्स चुरा लेने से किसी को पता नहीं चलेगा। यह भी हो सकता है ब्लड कैंप से एकत्र होने वाले ब्लड की यूनिट्स को कम बताकर रजिस्टर में दर्ज किया जाता रहा और बचे हुए ब्लड यूनिट्स की प्रोसेसिंग कर किशन प्लाज्मा बेचने का काम करता रहा हो।
यह भी सामने आया है कि प्लाज्मा पिछले कई महीनों से चोरी हो रहा था। किशन की आमतौर पर दिन की ड्यूटी होती थी, महीने में मुश्किल से 3 से 4 बार ही नाइट ड्यूटी लगती थी। जबकि ड्यूटी रोस्टर के अलावा भी किशन का ब्लड बैंक में आना-जाना था। किशन सहाय जयपुर के जगतपुरा में रहता है, लेकिन फिलहाल उसके घर पर भी कोई नहीं है।
जेके लोन अस्पताल के ब्लड बैंक इंचार्ज डॉ. सतेंद्र भले ही किशन सहाय कटारिया को रंगे हाथों पकड़ने और मामले का खुलासा करने का श्रेय ले रहे हों, लेकिन उनकी मॉनिटरिंग भी सवालों के घेरे में है। किशन कई महीनों से प्लाज्मा चुराकर बेच रहा था और उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगी।
ब्लड बैंक में 22 से 25 लोगों का स्टाफ रहता है, रेजिडेंट डॉक्टर्स, प्रोफेसर और सीसीटीवी कैमरा लगे होने के बावजूद किशन आसानी से प्लाज्मा चुरा रहा था। यह बिना किसी की मिलीभगत के संभव नहीं है।
वहीं डॉ. सतेंद्र इस बात का दावा कर रहे हैं कि किशन सहाय रंगे हाथों पकड़ा गया, लेकिन पकड़ने के बावजूद 24 घंटे बाद जेकेलोन अस्पताल के अधीक्षक को इस मामले की जानकारी दी गई। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्यों 24 घंटे तक मामले को दबाए रखा गया?
एसएमएस ब्लड बैंक इंचार्ज और जेके लोन ब्लड बैंक के एचओडी डॉ. बी. एस. मीना की जिम्मेदारी इस मामले में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। डॉ. मीना की जिम्मेदारी थी कि वह प्रतिदिन ब्लड बैंक में मौजूद ब्लड यूनिट्स, प्लाज्मा, एसडीपी (सिंगल डोनर प्लेटलेट्स) के स्टॉक की रिपोर्ट अपने पास मंगवाते ताकि उन्हें पता हो कि एसएमएस से संबद्ध सभी सरकारी अस्पतालों के ब्लड बैंक में कितनी उपलब्धता है।
अगर उन्हें जेकेलोन से मिलने वाली रिपोर्ट और डाटा में कोई गड़बड़ी लगती तो उन्हें खुद फिजिकल वेरिफिकेशन करना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया। अगर समय-समय पर इसकी मॉनिटरिंग होती तो यह गड़बड़ी बहुत पहले सामने आ जाती।
बातचीत में जेकेलोन ब्लड बैंक के मेडिकल ऑफिसर डॉ. बीएस मीना ने दावा किया कि उनके पास एक-एक यूनिट का हिसाब रहता है, लेकिन हमारी पड़ताल में सामने आया कि प्लाज़्मा का स्टॉक कितना है इसकी गणना बीते 7-8 महीनों से नहीं की गई थी। सूत्रों ने बताया कि पिछले साल 22 सितंबर को आखिरी बार टेंडर के जरिए प्लाज्मा बेचा था, तब से अब तक न तो मॉनिटरिंग हुई है और न ही यूनिट्स की काउंटिंग। अगर सारी एंट्रीज होती तो यह संभव ही नहीं था कि किशन सहाय वहां से प्लाज्मा चुरा पाए।
इस मामले में चौथे जिम्मेदार जेकेलोन अस्पताल के अधीक्षक डॉ. कैलाश मीना हैं। शनिवार को मामला खुलने के बाद भी उन्हें अपने ऑफिस से महज एक मंजिल ऊपर स्थित ब्लड बैंक में हुए इस मामले की जानकारी या भनक तक नहीं लगी। उन्हें मामले की जानकारी अगले दिन लगी। न तो उन्हें रिपोर्टिंग करने वाले जिम्मेदारों ने कोई जानकारी दी और न ही उन्होंने खुद ब्लड बैंक की कोई रिपोर्टिंग की।
उनसे इस बारे में बात की तो डॉ. कैलाश मीना कह रहे हैं कि ब्लड बैंक पर निगरानी रखी जाएगी, गार्ड लगाया जाएगा, सीसीटीवी की संख्या बढ़ाएंगे, जिम्मेदारी तय करेंगे और रिकॉर्ड मेंटेन किया जाएगा। इससे जाहिर है कि ब्लड बैंक के रिकॉर्ड और वहां काम कर रहे लैब टेक्नीशियन और अन्य कर्मचारियों की नियमित मॉनीटरिंग नहीं की जा रही थी।
दो दिन बाद FIR, तब तक फरार हुआ मुख्य आरोपी
इस मामले में यह भी बड़ी चूक है कि 4 को खुलासा होने के बाद एफआईआर दो दिन बाद 6 मई को थाने में दर्ज करवाई है। इससे यह हुआ कि आरोपी किशन सहाय कटारिया को मौका मिल गया और वह फरार हो गया।
कमेटी गठित, लेकिन इन सवालों के जवाब ढूंढे तो खुले परतें
इस मामले की जांच के लिए हेल्थ डिपार्टमेंट की एसीएस शुभ्रा सिंह ने उच्च स्तरीय जांच कमेटी गठित की गई है, जो गुरुवार तक अपनी रिपोर्ट सौंपेगी, लेकिन कमेटी के सामने कई सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढना जरूरी है…
ब्लड बैंक में एकत्र यूनिट्स का मिलान बैंक में जमा करवाई गई यूनिट्स से करने पर पता चलेगा कि किशन सहाय ने कितनी यूनिट प्लाज्मा चोरी किया।
किशन की ड्यूटी रोस्टर की भी बारीकी से जांच हो ताकि यह पता चले कि वह ड्यूटी के अलावा कितनी बार ब्लड बैंक में चोरी की नियत से दाखिल हुआ।
सीसीटीवी खंगाले जाएं ताकि चोरी से जुड़े सबूत इकट्ठे हो सकें साथ ही किसी अन्य की भूमिका का पता लगाया जा सके।
चूंकि प्लाज्मा किसी फार्मा कंपनी या एल्ब्यूमिन बनाने वाली कंपनी को ही बेचा जा सकता है, इसमें डील करने वाली कंपनियों की भूमिका का भी पता लगाना चाहिए।
आखिर क्यों चुराया जा रहा था प्लाज्मा?
हम जब भी रक्तदान करते हैं तो उसकी हर यूनिट से आरबीसी, डब्ल्यूबीसी, प्लेट्लेट्स और प्लाज्मा को अलग कर लिया जाता है। आरबीसी, डब्ल्यूबीसी और प्लेट्लेट्स जरूरत पड़ने पर मरीजों को चढ़ाई जाती हैं। प्लाज्मा से शारीरिक प्रक्रिया के लिए अति महत्वपूर्ण तत्व एल्ब्यूमिन बनता है, इसी कारण इसकी डिमांड रहती है।
जेके लोन अस्पताल अधीक्षक डॉ. कैलाश मीना ने बताया कि प्लाज्मा डायरेक्ट मरीजों को नहीं चढ़ाया जाता। इसे डीप फ्रीजर में स्टोर करके रखा जाता है। फिर टेंडर के जरिए फार्मा कंपनियों को बेच दिया जाता है। वो कंपनियां इस प्लाज्मा से एल्ब्यूमिन तैयार करती हैं।
यही एल्ब्यूमिन महंगे दामों में बिकता है। बाजार में इसकी एक डोज की कीमत 4000 रुपए तक होती है। ब्लड कैंसर, क्रोनिक लीवर डिजीज, क्रोनिक किडनी डिजीज जैसी गंभीर और जानलेवा बीमारी में मरीजों के प्राण बचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। गंभीर मरीजों को तो कई बार 10-10 एल्ब्यूमिन डोज की जरूरत पड़ती है।
सरकार ने प्लाज्मा की कीमत 400 रुपए तय कर रखी है। लेकिन प्लाज्मा के गैरकानूनी ढंग से बेचने के चलते सरकारी अस्पतालों में बहुत बार इसकी शॉर्टेज हो जाती है। निजी अस्पतालों और निजी ब्लड बैंक में यही प्लाज्मा 3000 से लेकर 4000 रुपए तक बिकता है।
एसएमएस अस्पताल के पास 8 ब्लड बैंक, सालभर में बेचते हैं 3-4 करोड़ का प्लाज्मा
मार्केट में एक लीटर प्लाज्मा की कीमत करीब 3900 रुपए प्रति लीटर है। बीते साल 6 मार्च, 30 मई, 17 जुलाई और 22 सितंबर को अस्पताल प्रशासन ने टेंडर के जरिए 500 लीटर प्लाज्मा फार्मा कंपनियों को बेचा था, जिसकी कुल कीमत 16 लाख 49 हजार 996 रुपए थी।
डॉ. बीएस मीना बताया कि एसएमएस ब्लड बैंक से संबद्ध 8 ब्लड बैंक हैं जो हर साल करीब 1 लाख यूनिट ब्लड कलेक्ट करते हैं। सारे सेंटर्स का मिलाकर करीब 3 से 4 करोड़ रुपए का प्लाज्मा बेचा जाता है।