नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के बाद राजनीतिक क्षेत्रों में एक नई चर्चा शुरू हो गई है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा ? वर्तमान अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का कार्यकाल पिछले साल ही पूरा हो गया था। इसे लोकसभा चुनावों तक बढ़ाया गया था, फिर प्रधानमंत्री ने उन्हें अपने मंत्रीमंडल में जगह देकर यह भी साफ कर दिया कि भाजपा को अध्यक्ष के रूप में किसी अन्य व्यक्ति की तलाश शुरू कर देनी चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी का नया अध्यक्ष कोई भी हो, यह कोई चमत्कारिक बात नहीं। जो भी व्यक्ति कार्यकर्ता, संगठन और सरकार में बेहतर तालमेल स्थापित कर सकता हो, वह इस पद के योग्य हो ही जाता है। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि आने वाले पार्टी अध्यक्ष के लिए यह दायित्व कितना चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। सूर्य के सात घोड़ों पर सवार भाजपा की चतुर्दिक विजय के उल्लास में लगे विराम ने यह स्थिति पैदा की है। पहले राजनाथ सिंह और फिर बाद में अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने ना केवल अपने बूते बहुमत प्राप्त किया था बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में यह आत्मविश्वास भी भरा था कि उनके हर निर्णय में पार्टी का हर कार्यकर्ता उनके साथ है। एक के बाद एक मिल रही विजय इस तथ्य का प्रमाण थी, लेकिन इस बार भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जरूर लेकिन वह अपने बूते बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। 2019 के मुकाबले उसे 63सीटों का नुकसान हुआ।
तो आने वाले अध्यक्ष के सामने सबसे पहली चुनौती तो कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाने की ही होगी। उस पर कार्यकर्ताओं को सोशल मीड़िया के मायावी संसार से निकालकर राजनीति के यर्थाथ धरातल पर लाने की सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होगी, इसके अलावा विभिन्न दलों से भाजपा में आने वाले नेताओं के संभावित अतिक्रमण से बचते हुए पार्टी के मूल कार्यकर्ताओं को यह विश्वास भी दिलाना महत्वपूर्ण होगा कि पार्टी में उनके स्थान और पूछ परख को कोई खतरा नहीं है। जब तक पार्टी के कार्यकर्ताओं में आत्मबल की वापसी नहीं हो जाती, तब तक किसी चमत्कारिक परिणाम की आशा करना व्यर्थ ही है ।
भाजपा के नए अध्यक्ष को यह काम तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ही करना होगा क्योंकि अगले कुछ महिनों में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड़ में विधानसभा चुनाव होने हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा सरकार में है, जबकि झारखंड में झामुमो की सरकार है। लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजे भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हैं। विधानसभा चुनावों में आने वाले परिणामों का प्रभाव ना केवल भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं अपितु केन्द्र में मोदी सरकार के मनोबल पर भी पड़ेगा। विशेष रूप से महाराष्ट्र के परिणाम सहयोगी दलों को उच्छृंखलता को काबू या बेकाबू करने में सहायक सिद्ध होंगें।
इसी के साथ मुस्लिम मतदाताओं के प्रति पार्टी की नीति भी एक बड़ी चुनौती है। अठाहरवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों ने यह सिद्ध किया है कि केन्द्र सरकार की सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की नीति को मुस्लिम मतदाताओं ने नकार दिया है। इसके अलावा केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पसमांदा मुसलमानों को प्राथमिकता देना भी भाजपा के समर्थक वर्ग को पसंद नहीं आया। तो भाजपा को अपने नए अध्यक्ष के कार्यकाल में इस पहेली को भी हल करना ही होगा।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसके वैचारिक मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ संबंधों को लेकर है। राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि जिस तरह भाजपा के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने कहा कि अब भाजपा को संघ की जरूरत नहीं, उसका असर चुनाव में लग रहे कार्यकर्ताओं पर पड़ा। इससे कई कार्यकर्ता जो संघ के स्वयंसेवक भी हैं वो निराश होकर निष्क्रिय हो गए। यह परिस्थिति भी चिंतित करने वाली है। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद स्वयंसेवक व प्रचारक रहे हैं। जगत प्रकाश नड्डा भी संघ के आनुशांगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से काम करते करते यहां तक पहुंचे हैं।
तो आने वाले भाजपा अध्यक्ष के समक्ष उतना सुनहरा और सुगम राजनीतिक पथ नहीं है, जितना कि केन्द्र में सरकार होने वाले संगठन के मुखिया का होता है। इसलिए भाजपा को एक ऐसा व्यक्ति ढूंढ़कर लाना होगा, जो इन चुनौतियों से निपटते हुए अन्य राजनीतिक दलों को हाशिए पर ढ़केल सके।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
सेंटर फॅार मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट