अठारहवीं लोकसभा चुनाव के पांच चरण हो चुके हैं। लगभग 85 प्रतिशत मतदाता अपने मतदान का प्रयोग कर चुके हैं। ये चुनाव दो महत्वपूर्ण बातों के लिए याद रखा जाएगा। पहला, पहली बार विपक्ष भाजपा के विमर्श में उलझ कर रह गया, वो आएगा तो मोदी ही और अबकी बार चार सौ पार के विमर्श से बाहर जा ही नहीं पाया। इस चक्कर में विपक्ष यह भूल गया कि लड़ाई 272 की है, चार सौ की नहीं ! और दूसरा मोदी का विकल्प नहीं बता पाने के कारण विपक्ष सेनापति विहिन सेना की दिशाहीन लड़ाई को लड़ रहा था, जिसका उसको कोई लाभ होते नहीं दिख रहा है।
इस पूरे चुनाव अभियान को देखें तो हम पायेंगे कि भाजपा ने यह चुनाव नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को सेनापति बनाकर लड़ा। दूसरी पंक्ति में योगी आदित्य नाथ, हेमंता विश्व सरमा, जे पी नड्डा, अन्नामलाई, राजनाथ सिंह, शिवराज सिंह, नितिन गडकरी जैसे नेता थे, जिनका राज्य के बाहर बहुत कम उपयोग हुआ लेकिन इन नेताओं ने अपने राज्यों में मोर्चा संभाले रखा। इसके विपरीत विपक्ष राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी जैसे नेताओं के साथ भाजपा को चुनौती दे रहा था। इनमें तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव व ममता बनर्जी के नाम पर मतदाता जरूर आ रहा था, लेकिन राहुल प्रियंका के नाम पर मतदाताओं में दीवानगी जैसी कोई बात नहीं दिखी। बहरहाल, 4 जून को जब मतगणना होगी तब यह स्पष्ट हो पाएगा कि जो भीड़ आ रही थी, क्या वह मतदाता था या राजनीतिक मेला देखने वाले दर्शक !
यह चुनाव इस बात के लिए भी याद रखा जाएगा कि शरद पवार, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, नवीन पटनायक, अशोक गहलोत, मायावती, फारूख अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती, मल्लिकार्जुन खडगे, उद्धव ठाकरे, चंद्रशेखर राव, और पी चिंदबरम जैसे नेता अपनी चमक खो चुके हैं और जनता में उनके प्रति वो आकर्षण नहीं बचा जिसके पीछे कभी ये लोग भारत की राजनीति को नियंत्रित करते थे। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि 2029 में होने वाले लोकसभा चुनाव में ये सभी चेहरे अप्रासंगिक हो चुके होंगें और सभी राजनीतिक दल नए नेतृत्व के साथ चुनाव लड़ने के लिए सामने आएंगें।
इस मामले में भाजपा भाग्यशाली है कि उसके पास नेतृत्व निर्माण का कारखाना है, उसके पास ऐसे बीसीयों नेता हैं जो अगले 20-25 साल तक देश को नेतृत्व देने की क्षमता रखते हैं। वहां नेतृत्व परिवर्तन और निर्माण की असाधारण परंपरा है। लेकिन असली चुनौती उन राजनीतिक दलों के लिए है, जिन्हैं राजनीतिक घराने अपनी पैठ बनाए रखने के लिए चला रहे हैं। इनके साथ समस्या यह है कि चुनावों में पार्टी की हार जीत से इन पार्टी के नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता । वहां नए राजनीतिक नेतृत्व का उदय उनकी पीढ़ी में से ही हो सकता है, समाज का सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता कभी उन दलों का नेतृत्व करेगा यह बात कल्पना में भी हास्यास्पद परिस्थिति पैदा करती है। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे सामने ही हैं।
तो यह कहा जा सकता है कि भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों में नए नेतृत्व के उभार का यह स्वर्णिम काल है। जैसा कि शरद पवार ने कहा कि 2024 के चुनाव के बाद छोटे राजनीतिक दलों को कांग्रेस में मिल जाना चाहिए, यदि ऐसा होता है तो यह जरूर लगता है कि कांग्रेस को थोड़ी मजबूती मिलेगी लेकिन उसके बाद भी वह भाजपा का विकल्प बन सकेगी इस बात में बहुत संशय है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद, तृणमूल कांग्रेस जैसे दल जबतक परिवारवादी राजनीति से बाहर नहीं आएंगें तब तक भाजपा को चुनौती देना केवल राजनीतिक कर्मकांड साबित होगा इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं।
तो जरूरत इस बात की है कि यदि भारत में मजबूत विपक्ष खड़ा करना है तो जातीय सांमजस्य के साथ ऐसा नेतृत्व विकसित करना होगा, जो छद्म धर्मनिरपेक्षता के आवरण को ओढ़ना बंद करे। इन पार्टियों को ऐसी नीतियों की बात करनी पड़ेगी, जो सनातन को मजबूत करे और भारत का हित उनके लिए सर्वोपरि हो। क्योंकि देश की राजनीति को नरेन्द्र मोदी उस दिशा में ले जा पाने में सफल हुए हैं जिसमें भाजपा को भाजपा बनकर ही हराया जा सकता है, और कुछ बनकर नहीं।
लेखक स्वतंत्र वरिष्ठ पत्रकार एवम व्यंग्यात्मक टिप्पणी के विशेषज्ञ हैं। और इस लेख में उनके निजी विचार हैं।
सुरेन्द्र चतुर्वेदी
सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट