विश्व में प्रति वर्ष 16 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय सहिष्णुता दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने वर्ष 1996 में 16 नवंबर को अंतराराष्ट्रीय सहिष्णुता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। यूं तो सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप में विभिन्न आस्थाओं और दर्शनों के बीच सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की भावना रही है। यहां सभी तरह की विचारधाराएं फली फूली हैं। आज दुनिया भर में आपसी समझ और सद्भाव को बढ़ावा देने और सह-अस्तित्व के बुनियादी सिद्धांत में संस्कृति की गहन भूमिका पर विचार करने का समय आ गया है। भारतीय संस्कृति, परंपराओं, धर्मों और भाषाओं की समृद्ध विरासत के साथ, विविधता की शक्ति और सहिष्णुता के महत्त्व के प्रमाण के रूप में आज भी प्रासंगिक होकर अडिगता से खड़ी है।
आज दुनिया इजरायल-फिलिस्तीन विवाद से लेकर क्रेन- रूस युद्ध जैसे संघर्षों से जूझ रही है। संघर्ष के इन बहुकोणीय चक्रवातों में सबसे बड़ी चोट सहिष्णुता और आपसी सम्मान को पहुंची है। इजरायल- फिलिस्तीन विवाद और यूक्रेन- रूस युद्ध में दोनों ही पक्ष की भूमिका की सराहना करते हुए उम्मीद कर रहे कि भारत इन युद्धों को समाप्त करवाएगा। इन हालात विश्व का शांति, सौहार्द एवं सह-अस्तित्व के लिए की ओर देखना यूं ही नहीं है भारत की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है।
दुनिया जानती है कि भारत ही एक ऐसा देश है जिसमें दुनिया के लगभग सभी धर्मों के लोगों ने संकट के समय शरण पाई। भारत ने सह- अस्तित्व एवं सर्वधर्म समभाव के मूल्यों का न केवल समर्थन किया बल्कि संरक्षण भी किया, चाहे उसे इसकी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़ी हो। हालांकि आज भारत कई अन्य देशों की तरह उग्रवाद और असहिष्णुता से उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर रहा है। फिर भी, सम्मान और समझ की सदियों पुरानी परंपराओं में निहित भारतीय समाज का ताना बाना उम्मीद जगाता है। यहां विविध त्योहार, दिवाली से लेकर ईद तक, सभी क्षेत्रों के लोगों द्वारा समान उत्साह के साथ आज भी मनाए जाते हैं। शांति और अहिंसा के दूत महात्मा गांधी की शिक्षाएं विश्व स्तर पर आज भी गूंजती रहती हैं बातचीत के जरिए संघर्ष के शांतिपूर्ण समाधान का विचार आज की अशांत दुनिया में भी प्रासंगिक बना हुआ है। गांधी की विरासत हमें याद दिलाती है कि सच्ची ताकत प्रभुत्व में नहीं, बल्कि करुणा और सहानुभूति की शक्ति में निहित है। ज्ञात रहे कि संघर्षरत विश्व के इतिहास में भारत कभी भी आक्रांता नहीं रहा।
जैसे-जैसे हम 21वीं सदी की जटिलताओं से जूझ रहे हैं, यूनेस्को के सहिष्णुता के सिद्धांतों की घोषणा में निहित मूल्यों को अपनाना अनिवार्य होता जा रहा है। सहिष्णुता का अर्थ केवल मतभेदों को सहन करना नहीं है; यह सक्रिय रूप से उनका सम्मान करने और उनकी सराहना करने में निहित है। यह प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा और मूल्य को पहचानने के बारे में है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि या मान्यता कुछ भी हो। समस्या पैदा होती है सिर्फ अतिवादिता से जिसमें कोई किसी विचार को श्रेष्ठ और सही मानने और मनाने पर अड़ जाता है। समस्या सही को स्वीकार करने में नहीं है, बल्कि तर्कों एवं कुतर्कों से ‘मैं ही सही हूं’ को थोपने में है। यह प्रवृत्ति संवाद से परे विवाद की खाई को और अधिक गहरा और गंभीर करती जा रही है भारत, विविध धर्मों, भाषाओं और रीति-रिवाजों का देश है। इस विविधता ने न केवल देश को समृद्ध किया है बल्कि सहिष्णुता और सह-अस्तित्व के लोकाचार को भी बढ़ावा दिया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का प्राचीन भारतीय दर्शन, सदियों से एक मार्गदर्शक सिद्धांत रहा है। यह दर्शन सभी प्राणियों के अंतसंबंध और सभी के साथ करुणा और सम्मान के साथ व्यवहार करने के महत्त्व पर जोर देता है।
सहिष्णुता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता अटूट है। देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं और धर्मनिरपेक्ष संविधान शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, सामाजिक सद्भाव बनाए रखने में भारत को भी कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। भारत में भी कई बार धार्मिक असहिष्णुता और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं देखी गई हैं। फिर भी, अधिकांश भारतीय बहुलवाद, सह-अस्तित्व और समावेशिता जैसे मूल्यों में विश्वास करते हैं। भारतीय संस्कृति इस बात का सशक्त उदाहरण है कि विविधता शक्ति और रचनात्मकता का स्रोत हो सकती है। देश की शिक्षा प्रणाली युवाओं में सहिष्णुता और सम्मान के मूल्यों को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।