Monday, December 23, 2024

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को किया तलब, शांतिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र मंदिर भूमि विवाद में नीति स्पष्ट करने का निर्देश

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नई दिल्ली, 10 दिसंबर, 2024:

भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आज राजस्थान के टोंक जिले में स्थित ऐतिहासिक शांतिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र सुदर्शनोदय तीर्थ क्षेत्र अनवा मंदिर से संबंधित भूमि विवाद मामले की सुनवाई की। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसनुद्दीन अमानुल्ला की पीठ ने राजस्थान सरकार को विवादित भूमि आवंटन पर अपनी नीति और कानूनी स्थिति स्पष्ट करने का निर्देश दिया।

याचिकाकर्ता ट्रस्ट की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सी.ए. सुंदरम उपस्थित हुए, जबकि राजस्थान सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता (एएजी) शिव मंगल शर्मा और अधिवक्ता सोनाली गौड़ ने कोर्ट में पैरवी की। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्तर पर कोई औपचारिक नोटिस जारी नहीं किया, लेकिन एएजी शर्मा को राज्य की नीति पर स्पष्ट निर्देशों के साथ पेश होने का आदेश दिया। इसके अलावा, याचिकाकर्ता ट्रस्ट को राज्य के एएजी कार्यालय को याचिका की एक प्रति सौंपने का भी निर्देश दिया गया, ताकि सुनवाई में तेजी लाई जा सके।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा 3 सितंबर, 2024 को दिए गए एक निर्णय से उत्पन्न हुआ है। यह मामला मंदिर ट्रस्ट द्वारा अनवा गांव, तहसील दूनी, टोंक में स्थित कुछ भूमि खसरों (खसरा संख्या 2064, 2145, 2148, 2149 और 2191) के दावे से संबंधित है। ये भूमि “गैर मुमकिन पहाड़” (बंजर चट्टानी भूमि) के रूप में दर्ज है, जिसे राजस्थान राज्य के वन विभाग द्वारा शासित सरकारी संपत्ति माना गया है।

मंदिर ट्रस्ट शांतिनाथ दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र ने राजस्थान भूमि राजस्व अधिनियम, 1956 की धारा 102 और 8 सितंबर, 2010 को जारी सरकारी नीति के तहत इन भूमि खसरों को नियमित करने की मांग की थी। यह नीति धार्मिक ट्रस्टों को उन भूमियों को नियमित करने की अनुमति देती है, जो सार्वजनिक आवागमन में बाधा नहीं डालती हैं और किसी विशेष उद्देश्य के लिए आरक्षित नहीं हैं।

उच्च न्यायालय का निर्णय

राजस्थान उच्च न्यायालय ने ट्रस्ट की रिट याचिका (एसबी सीडब्ल्यूपी संख्या 17/2022) को बिना किसी विस्तृत कारण के खारिज कर दिया और ट्रस्ट को अतिक्रमणकर्ता करार दिया। साथ ही, एक शंकरलाल नामक व्यक्ति द्वारा दायर एक जनहित याचिका (सीडब्ल्यूपी संख्या 14483/2019) को स्वीकार कर लिया, जिसमें आरोप लगाया गया था कि मंदिर ट्रस्ट ने सरकारी भूमि पर अतिक्रमण किया है।

कोर्ट ने मंदिर ट्रस्ट पर ₹5,00,000 का जुर्माना लगाया, जिसमें से ₹2,00,000 जनहित याचिकाकर्ता को और ₹3,00,000 राजस्थान राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को जमा करने का आदेश दिया। इसके अलावा, राज्य सरकार को कथित अतिक्रमण हटाने का निर्देश दिया गया।

ट्रस्ट ने तर्क दिया कि उसकी याचिका को साइट की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को ध्यान में रखे बिना खारिज कर दिया गया और यह भी स्पष्ट नहीं किया गया कि 2010 की नीति के तहत उसका दावा क्यों खारिज किया गया।

मंदिर का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

याचिकाकर्ता ट्रस्ट ने मंदिर की समृद्ध ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता को रेखांकित किया। 12वीं शताब्दी से मंदिर को एक प्रतिष्ठित जैन तीर्थ स्थल (अतिशय क्षेत्र) माना जाता है। इस क्षेत्र में खुदाई के दौरान कई प्राचीन जैन मूर्तियाँ और मंदिरों के अवशेष खोजे गए हैं, जो इसे धार्मिक और पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाते हैं।

ट्रस्ट ने दावा किया कि उसने मंदिर स्थल को कई सदियों से संरक्षित किया है, जिसमें मंदिरों का रखरखाव, वृक्षारोपण और आसपास की भूमि का संरक्षण शामिल है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने एक भोजनशाला, धर्मशाला और धार्मिक शिक्षा का एक विद्यालय भी स्थापित किया है।

ट्रस्ट ने यह भी कहा कि मंदिर स्थल किसी भी सार्वजनिक आवागमन में बाधा उत्पन्न नहीं करता है और शहर के मुख्य क्षेत्र के बाहर स्थित है। यह तथ्य उनके दावे को मजबूत करता है कि भूमि को सरकार की 2010 की नीति के तहत आवंटित किया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत कानूनी तर्क

वरिष्ठ अधिवक्ता सी.ए. सुंदरम ने ट्रस्ट की ओर से तर्क दिया कि:
• विवादित भूमि को “गैर मुमकिन पहाड़” (बंजर चट्टानी भूमि) के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इसे राजस्थान वन अधिनियम, 1953 की धारा 4 या 29 के तहत कभी भी वन भूमि घोषित नहीं किया गया है।
• ट्रस्ट दशकों से सटे हुए भूमि खसरों का स्वामी है, जहां 12वीं शताब्दी के कई प्राचीन मंदिर स्थित हैं।
• उच्च न्यायालय ने ट्रस्ट की लंबित नियमितीकरण आवेदन पर विचार किए बिना याचिका को खारिज कर दिया और कोई कारणयुक्त निर्णय भी नहीं दिया।

सुंदरम ने यह भी जोर देकर कहा कि उच्च न्यायालय ने ट्रस्ट पर भारी जुर्माना लगाते हुए उसकी ऐतिहासिक संरक्षण की कोशिशों को नजरअंदाज कर दिया।

ट्रस्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि उसने पहले की रिट याचिका में लंबित जनहित याचिका का उल्लेख किया था और उच्च न्यायालय का यह अवलोकन गलत है कि ट्रस्ट ने तथ्यों को छुपाने की कोशिश की।

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने एएजी शिव मंगल शर्मा को राज्य सरकार की नीति पर स्पष्ट निर्देशों के साथ पेश होने का आदेश दिया। अदालत ने जोर देकर कहा कि धार्मिक भूमि के नियमितीकरण और 8 सितंबर, 2010 के सरकारी आदेश के आधार पर राज्य की स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।

अदालत ने याचिकाकर्ता ट्रस्ट को भी राज्य एएजी के कार्यालय को याचिका की एक औपचारिक प्रति सौंपने का निर्देश दिया, ताकि अगली सुनवाई से पहले सभी प्रासंगिक विवरण दर्ज किए जा सकें।

मामले की अगली सुनवाई तब होगी जब राज्य सरकार अपनी आधिकारिक प्रतिक्रिया दायर करेगी, जो देश भर में समान धार्मिक भूमि विवादों के लिए एक मिसाल कायम कर सकती है।

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