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Swachh Bharat Mission – Urban 2.0: सफाई का संघर्ष अब भी जारी है

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2014 में स्वच्छ और खुले में शौच मुक्त भारत का सपना लेकर शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान ने कई अहम मील के पत्थर पार किए हैं। लाखों शौचालयों का निर्माण हुआ, खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां स्वच्छता की सुविधा पहले सीमित थी। लोगों में साफ-सफाई के प्रति जागरूकता भी बढ़ी है, खासकर बच्चों और युवाओं में। लेकिन आज, एक दशक बाद भी, हम इससे जुड़े कुछ अहम मुद्दों को सुलझाने से दूर हैं।

2021 में शुरू हुआ स्वच्छ भारत मिशन अर्बन 2.0, जिसमें 2025-2026 तक देश की लगभग 2,400 पुरानी लैंडफिल साइटों को साफ करने का लक्ष्य था। मगर ताजा आंकड़े बताते हैं कि अभी तक सिर्फ 50% लैंडफिल साइटों को ही साफ किया जा सका है।

हाल ही में जारी स्वच्छ भारत डैशबोर्ड के मुताबिक, 27 सितंबर तक देश के मिलियन प्लस आबादी वाले शहरों की 69 लैंडफिल साइटों में से 35 साइटों की सफाई अब तक पूरी नहीं हो पाई है। पांच साल के इस मिशन के तीन साल बाद भी शहरों की पुरानी लैंडफिल साइटों का आधा काम बाकी है। कुल डंप किए गए कचरे का सिर्फ 38% ही अब तक सही ढंग से निपटाया जा सका है।

आंकड़ों के अनुसार, 69 साइटों में 1,258 लाख टन कचरा फैला हुआ है, और इन 3,354 एकड़ में से अभी तक सिर्फ 1,171 एकड़ क्षेत्र की सफाई हो पाई है। यानी दो साल से कम समय में 65% से ज्यादा भूमि की सफाई और बचे हुए 162% कचरे का निपटारा करना होगा, जो एक बड़ी चुनौती है।

कुल मिलाकर, देश में चिह्नित 2,421 विरासत लैंडफिल साइटों पर 2,211 लाख मीट्रिक टन कचरा फैला हुआ है। इनमें से अब तक 41% कचरे का निवारण और 30% भूमि की पुनः प्राप्ति हो चुकी है। यानी कुल लैंडफिल का केवल 20% (474 साइट्स) ही ठीक किया जा सका है।

केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री ने हाल ही में कहा कि सफाई की प्रक्रिया जारी है, और उम्मीद है कि अगले दो वर्षों में यह काम पूरा हो जाएगा।

लैंडफिल साइटों की समस्या सिर्फ पर्यावरणीय नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और स्थान की कमी जैसी गंभीर समस्याएं भी पैदा करती है। हालांकि, सरकार और स्थानीय निकाय इस दिशा में काम कर रहे हैं, लेकिन सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अधिकारी त्रिभुवन सिंह बिष्ट के अनुसार, मौजूदा प्रयास और नीतियां पूरी तरह से कारगर नहीं हो पाई हैं।

इस मिशन की सफलता सिर्फ सरकार और स्थानीय निकायों पर नहीं, बल्कि आम जनता के व्यवहार और भागीदारी पर भी निर्भर करती है। सवाल यह है कि क्या हम इस अभियान को अपनी आदतों में उतार पाएंगे, या यह सिर्फ नारों, फोटो और भाषणों तक सीमित रह जाएगा?

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